ज़मीर के चंद टुकड़े !
चंद चांदी के सिक्कों के खातिर हम
सोने सा ज़मीर का टुकड़ा गिरवी रख देते हैं !
नहीं सोचते पलभर को क्या खोना क्या पाना हैं !
जो ज़मीर को गिरवी रखता हैं कभी नहीं लौटाता हैं !
धीरे धीरे किस्तों में वो पुरे ज़मीर को खा जाता हैं !
अब नहीं ज़मीर हैं जिसका अपना वो कुछभी करजाता हैं
अस्मत से खेलना माँ बहनो का
खून की होली दिनमे रात दिवाली कि बम बारूदों
से
उसका दिनचर्या बन जाता हैं !
मात पिता भाई बहन और हितैषी उसे बहुत समझाते हैं
पर उसका तो ज़मीर ही बिका हुआ था नहीं समझ वो
पाता हैं !
अपने ही देश के टुकड़े करने को दुश्मन से हाथ मिलाता हैं
और एक दिन देशद्रोही आतंकी बन अपना जान गंवाता हैं !
पर जाते जाते अंत समय में उसे समझ में आता हैं कि
नाहक ही चंद सिक्कों के खातिर
अपने ज़मीर के टुकड़े को वो गिरवी रखदेता हैं !
पर अब वक्त नहीं था पश्चाताप का पर एक संदेश
देश के युवाओ को वो दे जाता हैं !
चाहे कुछ भी होजाये
चंद चांदी के सिक्कों के खातिर
अपने सोने सा ज़मीर का टुकड़ा गिरवी क्यों रखना हैं !!!
— Written by Anil Sinha