October 17

क्या हैं मेरे दिल की बातें ?

मैं एक इंजिनियर ऊँचे पदपर कार्यरत था
पर मेरे अंदर एक लेखक भी जिन्दा था !

लगता था कलकारख़ाने के कलपुर्जे से लेकर
पेड पौधे तथा जानवर जो भी आसपास था मेरे
अपने अपने तरीके से कुछ कहना चाह रहा था !

बहुत ब्यस्त रहता था अपने कामों में
फिर भी उनके बातोंको सुन किसी कागज के टुकड़े पर
या डायरी के पन्ने पे लिख लेता था !

फिर एक दिन ऐसा आया जब मैं
कैंसर से पीड़ित होकर मृत्यु शैया पे झूल रहा था
मुझे लगा वो पेड़ पौधे और जानवरो की ब्यथा
जो उन्होंने मुझे सुनाई थी मेरे साथ  ही चली जायेगी !

कितना भरोसा था उनको उनकी ब्यथा को
मैं दुनियाँ को बतलाऊगा !

बेटी जब आई हॉस्पिटल उसे अपने दिलका बात बताया था !

झटपट उसे डायरी के पन्नों से या कागज़ के टुकड़ो से जो भी मिलपाया !
उसको लेकर Emotions नाम से एक पुस्तक छपवाई !

उसी समय ओपरेशन से पहले मैं ईश्वर से बोला
हे प्रभु अभी मेरा काम अधूरा हैं !
सारे मूक जीवो की ब्यथा उनसे सुननी और सुनानी हैं !

घर परिवार तथा विश्व का वैमनष्य मुझे मिटानी हैं
अच्छे कविताओं के बलपर अपने देश को बहुत
सालो के बाद पुनः नोबेल पुरस्कार दिलानी हैं !

अतः हे प्रभु आप जीवन दान मुझे दे दो !
होगा आश्चर्य आपको मुझे ऐसे जटिल अवस्था में भी
जीवन दान मिला हैं !

अब मैं अपने काम से सेवानिवृत होकर
समाज और दुनियां की सेवा में समर्पित हूँ !

मेरे पाठक से बस एक निवेदन हैं
मेरे कविताओं को जन जन तक पहुंचाए
और इस पुण्य कार्य में मेरा हाथ बटाये !!!

— Written by Anil Sinha

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October 17

नारी का सम्मान करो !

कौन हैं नारी पहले समझो
फिर उसका सम्मान करो !

नारी जननी हैं नारी माता हैं
झुक कर उसे प्रणाम करो !

नारी रूप हैं बहना का
बहना के प्यार उसके राखी का सम्मान करो !

विधि विधान से वरण किया जिस नारी को
छोड़ आयी जो अपने आंगन को सिर्फ उस  नारी को
पत्नी रूप में स्वीकार करो !

पति पत्नी के प्यार स्वरुप
एक नन्ही कलि घर आपके आई
उस नारी को बेटी रूप में स्वीकार करो !

चाहे जिस रूप में हो नारी
हर रूप में ममता स्नेह प्यार के रंगों से
भरा हैं आपके जीवन को
उस नारी का सम्मान करो !

नारी फूल हैं दुनिया के बगिया का उसकी ममता स्नेह व प्यार उसकी सुंदरता हैं 
उसके सुंदरता का सम्मान करो !

नारी का सम्मान उस माली का सम्मान हैं
जिसने इस दुनियाँ के बगिया को
सुन्दर फूलो से सजाया हैं
उस रचना कर्ता  के रचना का सम्मान करो !

ईश्वर के उस बगिया के हम सब चौकीदार हैं
जीवन में जिस पदपर भी हो
इस चौकीदारी का भी कार्य करो !

तब क्या ये संभव होगा
हम सब चौकीदारों के होते
कोई एक दरिंदा आये
फूल तोड़ हमारे बगिया का उसे मसल कर जाये
अपने प्राण गवां कर भी उसका तुम प्रतिकार करो !

माँ बेटी बहन व पत्नी ये फूल हमारे बगिया के हैं
इन फूलों को जाति धर्म समाज में ना बांटो
ये तो बस सुंदरता हैं बगिया का यही धर्म हैं इनका
इस सुंदरता का सम्मान करो नारी का सम्मान करो !!!

— Written by Anil Sinha

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October 17

मैं शेर का बच्चा !

आंख खुली धरती पर मेरी जब !
खुद को राजवंश में पाया !
देख पिता का रौब मैं मन ही मन हर्षाया !!

ये आशीर्वाद प्रभु का हैं !
जो जन्म हुआ हैं मेरा जंगल के राजा के घर में !
आभार प्रगट करने को प्रभु का मैंने शीश झुकाया !!

जब मैं कुछ बड़ा हुआ !
तो संग खेलने को एक साथी ना पाया !
दूर दराज जो बच्चे खेल रहें थे जो उन्हें पास बुलाया !
भाग गये वो सब डरके मुझसे कोई पास ना आया !!

क्यों डरते वो सब मुझसे मुझे समझ ना आया !
कोमल मन बच्चे का मेरा बिन साथी मुरझाया !
माँ ने पूछा जो हाल मेरा मैंने अपना दुखड़ा बतलाया !!

नहीं असंभव कुछ दुनियाँ में माँ ने मुझे बताया !
नित प्रयास करो कोई ना कोई साथी मिल ही  जायेगा माँ ने मुझे समझाया !!

फिर निकल पड़ा जो पुरे हौसले से एक छोटा मेमना पाया!
भाग रहा था वो भी डर से पर जाकर सामने
मैंने उसे समझाया !

मेरे जीते जी तुझको एक खरोंच ना आएगा
मैंने उसे  बताया !!

तबक़ही जाकर बमुश्किल उसने दोस्ती को हाथ बढ़ाया !
हुई घनेरी हमारी दोस्ती
मैं जय वो वीरू कहलाया !!

एक दिन शाम को जब मैं खेल कर आया
और पापा को अपना भूख जताया !

निकल पड़े शिकार को झटपट कहा तुरंत लौट कर आया
कुछ देर में उन्होंने मेरे वीरू को जबड़े में दबोच कर लाया !

खून में लतपथ मेरा  वीरू पीड़ा से कराह रहा था
पापा की आँखे चमक रही थी मानो तोहफा कुछ लाया !

छोड़ उसे मेरे सामने वो चले गये वहाँ  से
चाट  चाट के अपने वीरू के जख्मो को मैं उसे सहलाया !
अपने अधखुले आँखों से वीरू मुझको देख रहा था
मानो वो कहरहा था हमने विश्वास घात किया उससे
अपना वादा नहीं निभाया !!


बंद हो गई जो उसकी ऑंखें खुदपर गुस्सा बहुत ही आया 
नहीं काबिल हूँ किसी के दोस्ती का
जो दोस्ती का धर्म नहीं मिभा पाया !

मैं खुद से बोला ये आशीर्वाद नहीं अभिशाप प्रभु का हैं
जो जन्म दिया दानव राजा के घर में
अब नहीं गर्व हैं मुझको राजवंश में होने का
धिक्कार मुझे इस जीवन का अपने वीरू को बचा ना पाया !
कूद गया पहाड़ के छोटी से ये जीवन राश ना आया !!!

— Written by Anil Sinha

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October 17

आश्रित !

कितना दुखदायी होता हैं
किसी के आश्रित जब कोई हो जाता हैं !

जिसके आश्रित हो बीवी बच्चे और पूरा परिवार
दुखदायी बहुत ही होता हैं जब  खुदआश्रित हो जाता हैं !

साख फैलाये घने बट बृक्ष कि छाया में आश्रित कोई आता हैं
और शकून वो पता हैं तो वृक्ष का सीना चौड़ा हो जाता हैं, एक अजीब सा सुख वो  पाता हैं !

पर वक़्त बदलता जाता हैं वृक्ष के तरुवर से कई नये वृक्ष उग जाते हैं
सींच सींच कर उन वृक्षों को वृक्ष बड़ा वो करता हैं,
इतना बड़ा वो करता हैं कि खुद बौना होजाता हैं
बूढा होजाता हैं आश्रित होजाता हैं कल तक जो उसपे आश्रित थे उनपे आश्रित होजाता हैं !

ये प्रकृति का नियम हैं एक दिन दाता ही जाचक बनजाता हैं !
पर उस जाचक के दीन भाव को कहाँ कोई समझ पाता हैं !

भाव प्रगट करें अपने मन का इससे पहले ही
हर कोई उसको ही कुछ समझा जाता हैं
अभिब्यक्ति कि आजादी भी अब नहीं रही सोच सोच
मुस्काता हैं दिल टुटा हो पर हाँ में शीश हिलाता हैं !

खुद को वो समझाता हैं अब तो यूँ ही आश्रित रहना हैं
चाहे कुछ भी हो जाये बंद अपने जुबां को रखना हैं
वर्ना नहीं पता कौन सी बात आश्रय दाता को चुभ जाये
और हम आश्रित कोपभाजित हो फिर अनाथ हो जाएँ
अब तो धन कि नहीं कोई चाहत हैं प्यार का आश्रय जरुरी हैं !

नाती पोता गोद में खेले कुछ फरमाइश नाना नानी
दादा दादी से कर ले बस उनके ही चाहत को पूरा
करने को थोड़े से धन कि चाहत हैं !

उसके लिये भी इस बेचारे को किसी पे आश्रित रहना हैं !
कितना दुखदायी होता हैं
किसी के आश्रित जब कोई हो जाता हैं !!

— Written by Anil Sinha

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October 10

मैं पौधा – सेवा जीवन से अंत तक !

हम पौधे
जीते हैं जीवन
मानवजाति के लिये !

बचपन से मरने तक और उससे भी आगे
हम समर्पित होते हैं
मानवजाति के लिये !

कसम जो हमने खाई हैं
होगा समर्पित हमारा जीवन
मानवजाति के लिये !

सांसे हमारी होती हैं
उनके साँसो के लिये
बड़े घनेरे होते हैं हम उनके छाओ के लिये !

तरह तरह के फल सब्जियों से
हम लद जाते हैं
मानवजाति के भोजन के लिये !

बाग बगीचे को
फूलो से भरते हैं
मानवजाति के सजावट सुंदरता और खुसबू के लिये !

झूम झूम कर
ठंडी हवाओं का झोंका हम फैलाते हैं
मानवजाति के लिये !

जीवन काल तक  तो सेवा करते हैं
मरकर काठ भी हम बन जाते हैं
मानवजाति के लिये !

हम ही नहीं
पूरी कायनात बनी हैं
मानवजाति के लिये !

पर ये बेचारा मूर्ख
नये शहर बसाने को कलकारख़ाने लगाने को
मानवजाति जीवन दायी वृक्षों को काट रही हैं !

नहीं समझ हैं इनको शायद
जब तक हम जिन्दा हैं ये जिन्दा हैं
हम तो बस जिन्दा हैं मानवजाति के लिये !

हम पौधे
जीते हैं जीवन
मानवजाति के लिये !!!

— Written by Anil Sinha

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October 10

एक मछली 🙏 कृपया हमें ना मारे !

आप में से कइयों के पास अपना एक्वोरियम होगा
उसमे आपने कई सुन्दर सुन्दर मछलियों को रखा होगा !

बड़े  चाओ से बड़े लगन से
उन मछलियों को आपने पाल रखा होगा !

अब क्या ऐसा संभव हैं
कोई आपके घर आये और
उन मछलियों को निकाल लेजाए
कदाचित ऐसा संभव नहीं होगा !

नहीं ना?
तो जरा सोचिये आप
ये नदी झील तालाब समंदर ईश्वर के सारे  एक्वोरियम हैं
जिसे ईश्वर ने सुन्दर  सुन्दर मछलियों से सजा रखा होगा !

फिर कैसे इन एक्वोरियम से
ईश्वर के मछलियों को निकाल ले सकते हो आप
कदाचित ऐसा करना आपके लिये उचित नहीं  होगा !

आपके तरह बड़े चाओ से बड़े जतन से
ईश्वर ने अपने प्यारे मछलियों को
इन एक्वोरियम में पाल रखा होगा  !

फिर कैसे आप साहस कर सकते हो
ईश्वर के उन मछलियों को उनके एक्वोरियम
से निकाल कर उनके सामने मारो
सोचो ईश्वर को कैसा लगता होगा !

क्या आप ईश्वर से ज्यादा शक्तिशाली हो
उस श्रीस्टी करता  के आगे तुम एक फतिंगा हो
फिर भी उसका श्रिस्टी हो सोच
तुम्हे सुधरने का वक़्त दिया होगा !

अगर सुधारना चाहो तुम तो
हम विनती करते हैं कृपया हमें ना मारो
मिलकर हम सबको
प्रभु के एक्वोरियम को सजाना होगा !!!

— Written by Anil Sinha

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October 10

एक कल्पना की हकीकत !

कल्पना नहीं ये हकीकत हैं
ये दुनिया बहुत ही खूबसूरत हैं !

ये नदी नाले पहाड़  व पर्बत
घनेरे जंगल की छाया में मधुर चिडियो का कलरव हैं !

तरह तरह के वन के प्राणी
ये वन के प्राणी इस वन की शोभा हैं !

यहाँ ऊँची ऊँची इमारते
सुन्दर सुन्दर भवन और धरोहर दुनिया के हैं !

विभिन्य कार्य में जुटे ये हलचल मानवजाति  का हैं !
बच्चे जवान और बूढ़े सभी अपने कामों में मगन हैं

कितना सुखी सम्पन्न खुशहाल ये दुनियाँ हैं !
अब आपस की बैर हमारी,  घोर संकट को लाया हैं !

ऐसा तनाव का माहौल बनरहा विश्वयुद मंडराया हैं !
जब नहीं झुकने को तैयार हैं कोई तो युद्ध तो होनी हैं !

विनाश काल में विपरीत बुद्धि तो होनी ही हैं  !
एक ने बम फेंका तो जवाब में दूजे ने भी फेंका हैं !

एक का दुश्मन दूजे का दोस्त बनकर उसने भी बम फेंका
और देखते देखते छिड़ी विश्व युद्ध की लड़ाई हैं !

सबने अणु बमो का खोल जखीरा एक दूजे पे बरसाई हैं
चारो तरफ हाहाकार मची हैं लाशो की अम्बार लगी हैं !

महल अट्टालिकाएं टूट कर खंडहर बनी ये दुनियाँ हैं
क्या जंगल क्या गांव शहर सभी जगह सिर्फ आग का गोला हैं !

आन बान के टक्कर में आज पूरी दुनियाँ कब्रिस्तान
बनी हैं !
ना कोई इंसान बचा ना कोई जानवर और पंछी हैं !

निस्तब्ध हुई ये दुनियाँ
सारी दुनियाँ वीरान पड़ी हैं !

ये उस हकीकत की कल्पना हैं जो होने वाला हैं
बचा सको तो बचा लो इस दुनियाँ को ये अरज दुनियावालो वालो से हैं !!!

— Written by Anil Sinha

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October 8

एक मुर्गे कि बांग !

सुबह सुबह उठकर एक मुर्गे ने ऐसी बांग लगाई
कवि जो पास ही टहल रहा था उसे समझ में आई
मुर्गे ने अपनी दिल कि ब्यथा बांग लगा बताई !

हम जो होते एक मानव तुझसा तू होता एक मुर्गा
तेरे प्रति हमारी सोच अलग ही होती
कभी ना बनते तेरे जैसा हम एक कसाई !

बल्कि हमतो ईश्वर कि इस अदभुत रचना का
रूप वर्ण और बुद्धि का
करते बहुत बड़ाई !

हम तो कचड़े खाकर करते हैं
धरती कि सफाई
हमें काम दिया जो ईश्वर ने हमने उसे निभाई !

प्रातः काल उठकर  सबसे पहलें
सब उस अमृत बेला का लाभ उठा सके
उसके लिये ही हमने प्रातः काल में बांग लगाई  !

ऐसे में ना कर प्रशंसा हमारे कर्मो का
मानव तूने मरोड़ कर मुर्गो कि गर्दन
नोच के उसके सुन्दर पंखो को उसे चिकेन बनाई !

फिर काट काट कर बोटी बोटी
उसने पका के उसको मुर्गमुसल्लम बनाई  !

हे मानव तूने हमारे अच्छे कर्मो का
कैसा सिला दिया हैं
हमारे सामने ही हमारे बच्चों को नोच नोच कर खाई !

अब हम जो होते तुम
तो कदाचित ऐसा ब्यवहार ना करते
हम तो करते सम्मान ईश्वर के रचना का
कहते कहते उस नन्हें मुर्गा के आँखों में आँसू आई  !!

— Written by Anil Sinha

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October 1

रोजगार !

देश के प्रगति के इंजन का ईंधन हैं रोजगार
जितना ईंधन डालेंगे उतना सरपट भागेगी सरकार !

शायद इन बातो से अबतक अनभिज्ञ रही हैं सरकार
तभी तो आज करोड़ो युवा शक्ति बैठे हैं बेकार !

चाहे भीड़ तंत्र जुटानी हो लाठी गोली खानी हो
सबने इनको ही आगे करके अपना मतलब साधा पर ये रहे बेकार !
पर नहीं मुहैया करवा पाये एक छोटा सा रोजगार !

बूढ़े माँ बाप बीमार पड़े हो बच्चे भूखे नंगे हो
एक मात्र कमाने वाला आज वो भी हो  बेरोजगार !

ऐसे ही मजबूर लोगों का फायदा गलत लोग उठाते हैं
चंद पैसो का लालच देकर इनसे गलत काम करवाते हैं !

फिर ये बेरोजगार लाचार बच्चे माओवादी आतंकी कहलाते हैं
और एक दिन इनकाउंंटर में मारे जाते हैं !

क्या देश का प्रधान मंत्री या मुख्य मंत्री हमको ये समझायेगा
किसने इन बच्चों को माओवादी आतंकी बनाया
ना देकर एक छोटी सी नौकरी इन्हे हथियार थमाया !

अगर देश का मुखिया नहीं निकालेगा इस बेरोजगारी का तुरंत कोई समाधान
तो देश कि युवा शक्ति ही शोला बनकर देश के ईट से ईट बजायेगा !
देश कि सृजनात्मक शक्ति ही देश का काल बनजायेगा !

अगर सच्चे मन से सच्चे नीयत से इस बेरोजगारी का देश
ढूंढती हैं समाधान तो राह निकल ही जायेगा !
आज का ये युवा शक्ति ही देश को विश्वा गुरु बनायेगा !

मिलजायेगा जो रोजगार सभी युवा शक्ति को तो
देश के प्रगति को मानो डबल इंजिन लग जायेगा !!

— Written by Anil Sinha

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October 1

घर घर कि कहानी !

नई नई परेशानी हर घर कि यही कहानी हैं
तिनका तिनका जोड़ रहें जो सबकी भूख मिटानी हैं |

टपक टपक कर छत से पानी गरीबी को मुँह चिढ़ा रही हैं
तार तार हुए हैं तन के कपडे उसपे भी पैबंद लगानी हैं |

रोम रोम क़र्ज़ में डूबा हैं उसपे कोढ बना कॅरोना हैं
बंद बंद हैं रोजी रोटी सब नहीं आय का कोई साधन हैं
बिलख बिलख बच्चे जो रोये उनकी तो भूख मिटानी हैं ||

पी पीकर वो तो अपना गम हल्का कर लेते हैं |
सिसक सिसक कर ममता समझाती हैं अपना गम हल्का करने से ज्यादा
जरूरी बच्चों कि भूख मिटानी हैं ||

रो रो कर बेटी बेहाल हुई हैं उसका गौना भी करवानी हैं
खट खट लाठी से कर बाबूजी जताते हैं उनके आँखों
का ऑपरेशन करवानी  है |

चीख चीख कर हालत बयां करती हैं हर घर कि
रो रो कर कई घरों में  बच्चों को पानी पीकर रहजानि हैं |

पानी पानी होकर शर्म से एक कटोरा चावल को पड़ोस में हाथ फैलानी हैं |
घर घर कि यहाँ यही कहानी हैं सबकी यही परेशानी हैं ||

— Written by Anil Sinha

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September 22

दाग़ !

खुद के दाग़ छुपाने को लोग गैरों पे दाग लगाते हैं
पाक साफ हैं  दामन बतलाने को रोज इत्र लगाते हैं
छुपा सकें जो काले मन को सादे वस्त्र पहनते हैं !

भीड़ जुटा कर भोले लोगों का उन्हें गलत पाठ पढ़ाते हैं
फिर परदे के पीछे से वो जगह जगह दंगे करवाते हैं
और टीवी के परदे पे आकर सरकार पे तोहमत लगाते हैं!

जान के इनके मंसूबो को दुश्मन देश इनसे हाथ मिलाते हैं
वो इनको पैसे और सत्ता का लालच देकर इनसे  देशद्रोह कराते हैं !

मानव रूम में ये भूखे भेड़िये अपने ही लोगों को खाते हैं
फिर घड़ियाली आँसू रोकर मृतकों के घर संतावना देने जाते हैं !

पर ऐसा नहीं कि  ये पीड़ित इनको नहीं समझते हैं
बस पानी में जो रहना हैं तो इन घड़ियालो से डरते हैं !

पर कब तक रहेंगे यूँ डर डर के अब विचार ये करते हैं
कैसे करें इनसे मुकाबला ये गिरगिट जो हरदम रंग बदलते हैं !

सबसे पहले हम सबको इनका चाल समझना हैं
बाँट सके ना कोई हमको जाती धर्म के आधार पे ये बात हमें समझना हैं !

यही हम सबकी हैं कमजोरी जो बाट हमें इसी आधार पे राज हमपे ये करते हैं !
समझ गये जो हम इनको तो अब एकजुट हो जाना हैं!

हमको अपने मताधिकार के प्रयोग का जब भी मौका मिलता हैं
इन भेड़ियों के चिकनी चुपड़ी बातो से दूर हमें तो रहना हैं !
बहुत सोझ समझ कर एक मजबूत सरकार बनाने को सही जगह बटन दबाना हैं !
कल उनकी बारी थी आज आपकी बारी हैं
सही जगह बटन दबाकर उन हीरो को जीरो पे लाना हैं !

नोच के उनके मुखौटे उनका सही रूप दिखाना हैं
ऐसे दागी सफेदपोश लोगों का मुँह काला करवाना  हैं
भिजवा कर इनको जेलों में इनका सही जगह दिखाना हैं !

अगर नहीं दिखा पायें हम अपनी एकजुटता तो हम पर ये फिर हाबी हो जायेंगे l
अगर गलती से भी ये सत्ता में आये तो नोच देश को खाएंगे गुंडा राज चलाएंगे !

एक हमारे छोटे से भूल का हर्जाना पूरा देश चुकाएगा !
नहीं करेंगे हम ऐसी कोई गलती जो भारतमाता के दामन पे दाग लगाएगा ! !

— Written by Anil Sinha

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September 13

मै एक फूल !

मुझे गर्व है आपने जीवन पे
बेशक ये पल दो पल का है !

नाज मुझे है अपनी सुंदरता पे
बेशक़ ये पल दो पल का है !

मै इतराती हू अपनी खुसबू पे
बेशक़ ये पल दो पल का है !

क्यो गर्व मुझे है आपने जीवन पे
प्यार का इजहार हो या दूल्हे दुल्हन के गले का हार हो
हर जगह मेरी जरुरत है !

धन्य भाग्य होजाता है जब अर्पण की जाती हू प्रभु के
श्री चरणों पे
या फिर मुझे देश के वीर  शहीद जवानों पर
चढ़ाई जाती है !

जीवन सार्थक तभी लगता है जब काम किसी के आती हू
छणभंगुर है भले ही जीवन वर्षों का सुख दे जाती है !
मुझे गर्व है आपने जीवन पे
बेशक़ ये पल दो पल का है !!

— Written by Anil Sinha

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September 13

एक नन्हा सवेरा !

चिड़ियों कि चहचहाने के साथ
मुर्गे कि बांग लगाने के साथ
कोयल के मधुर गान के साथ
जन्म होता है एक नन्हें सवेरा का !

मंदिर के घंटीओ के साथ
मस्जिद के अजान के साथ
गुरूद्वारे के गुरदास के साथ
जन्म होता है एक नन्हें सवेरा का !

सागर के एक छोर से
पहाड़ो के ओट से
घने जंगलों के झुर्मुट से
लाल वस्त्र मे , जन्म होता है एक  नन्हें सवेरा का !

अब लोगों के दिनचर्या के साथ
पेट कि अगन मिटाने के साथ
अपने अपने कामों में लगने के साथ
उम्र बढ़ता है एक  नन्हें  सवेरा का !

बचपन के अठखेलियों के साथ
कई नादानियों के साथ
जवानी के रंगीनियों के साथ
वयस्क रूप होता है उस नन्हें  सवेरा का !

अपनी जिम्मेदारियों के साथ
जीवन के परेशानियों के साथ
माथे के सिलवटों के साथ
कुछ अधेड सा लगता है चेहरा उस नन्हें  सवेरा का !

अपने अंतिम कुछ जिम्मेदारियों के साथ
कुछ खोने कुछ पाने के एहसास के साथ
जीवन के कस्ती को किनारे लगाने के प्रयास के साथ
अब झुर्रियों के साथ बुढ़ापा झलकता है नन्हें सवेरा का !

अब लौटते चिड़ियों के कलरव के साथ
मंदिर के शंख नाद और संध्या आरती के साथ
मस्जिद के आखरी अजान के साथ
गिरजा और गुरूद्वारे के अंतिम पाठ  के साथ
आ गया है वक्त अंतिम विदाई का उस नन्हें सवेरा का !

काले चादर में लिपटने के साथ
चिड़ियों के कलरव बंद होने के साथ
कुत्तों के क्रंदन के आवाज के साथ
दूर जलते चिता के लऔ के साथ
कह गया लौट के आऊंगा करो इन्तेजार नन्हे सवेरा का !

— Written by Anil Sinha

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September 10

प्रकृति !

क्या कुछ नहीं दिया प्रकृति ने मानवता के हित को
ये नदी नाले पहाड़ व पर्वत तथा घनेरे जंगल की छाया 
जीने की सारी मूलभूत सुविधाओं को देकर
प्रकृति ने तो अपना प्रकृति  धर्म हर हाल निभाया !

नीले अम्बर पे सूरज चाँद सितारे तथा
नौ ग्रहो को उसने है सजाया !
फूल फलों से सजा के
धरती के बगिया को मानो स्वर्ग बनाया !

क़द्र नहीं हमने की इसकी
नये शहर बसाने को पहले जंगल को कटवाया !
फिर भी चैन ना आया हमको तो
पूरे विश्व में जगह जगह पे  परमाणु विस्फोट कराया !

शुद्ध करें जो जीव  हमारे जल को
कल कारखानों के गंदे रसायनो से उनको भी मरवाया 
छिपा रखी थी जो खनिज सम्पदा धरती आपने गर्भ में
खोद निकाल हमने वो सब धरती को कमजोर बनाया !

जब जब किया जुल्म धरती पर हमने
प्रकृति ने अपना आक्रोश जताया !
मूक प्रकृति कर भी क्या सकती थी
फिर भी सांकेतिक भाषा कभी बाढ़ कभी भूकंप
के रूप में अपना रौद्र रूप दिखाकर हमको समझाया !

समझ, नासमझ बने रहें हम
उलटे आपदा प्रबंधन टीम बनाया !
जन मानस के निम्मित ये प्रकृति नहीं चाहती नर संहार  
बहुत बेबस किया जो हमने तो ही रौद्र रूप दिखाया !

पर हम मानव तो नहीं समझते नहीं संभलते क्यों कि
साबित शर्व शक्तिमन खुदको  कारपाएंगे
जो हमने सबसे ख़तरनाक बम बनाया !
खुदको शर्व शक्तिमान साबित करने के होड़ में
हमने पुरे मानवजाति का ही कब्र  खुदवाया !

जब नहीं बचेगा कोई जग में
तो कौन प्रकृति का छटा निहारेगा
यही सोच प्रकृति ने भी हमको बार बार समझाया !!

हमने किया है सिर्जन इस जग का मानव जाती के लिये
बिन मानव बाँझ कहलाएगी प्रकृति माँ तुम्हारी
कहते कहते मानो प्रकृति माँ के आँखों में आँसू आया !!!

— Written by Anil Sinha

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September 2

आप बेमिसाल हो !

आप बेमिसाल हो
हम सबके लिये मिसाल हो !

मुसीबतों पे ढाल हो
दुश्मन के लिये तलवार हो !

गरीब की मसीहा हो
अमीर आप पैदायशी  हो !

राहों पे आपके  फूल बिछे हो 
छोड़ उन्हें आप काँटों पे चलती  हो !

काँटों को भी आप फूल बताती हो
चलके उन राहो पे आप ये जताती हो !

नहीं असंभव कुछ दुनिया में ये बताती हो
बातो से नहीं खुद संभव करके दिखलाती हो !

घर की रौनक आप ही हो
आप ही  इसकी बाती  हो !

हर हालत में घर को खुशनुमा बनती हो
कैसे जीते है जीवन ये हमें बताती हो !

कभी सोचता हू आप क्या हो?
बच्चों की दुनिया की सबसे अच्छी माँ हो
दुनियाँ  के हर रिश्ते पे आप खरी उतरती हो !

घर पे आये मुसीबतों पे आप दुर्गा लगती हो
जीवन के मूलमंत्र बताने को शरस्वति लगती हो
धनोपार्जन की बात जो हो तो आप लक्ष्मी लगती हो !

अब गर कोई पूछे मुझसे मेरे लिये आप क्या हो
मेरे लिये तो वरदान स्वरुप अल्लादीन का चिराग हो !

आप बेमिसाल हो !!!

— Written by Anil Sinha for her beloved wife Anjali Sinha

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August 6

क्या चाहता है ये दिल ?

यह कविता आदरणीय प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी को समर्पित है !

दिन के उजाले में भी
जा कर तंग गलियों में
रोशनी तलाशता है दिल
क्या चाहता है ये दिल !

शाही जिंदगी में भी
जो नींद ना हो आँखों में
जमी पे सोना चाहता है दिल
क्या चाहता है ये दिल !

लजीज खाने पड़े हो सामने
पर तलब उन खानो की नहीं
सूखी रोटी चबाना चाहता है दिल
क्या चाहता है ये दिल !

आसमा के बुंलदियों के बाद
जमी को क्यों निहारता है
जब मालूम था आसमा के लिए जमी को छोड़नी होगी
क्या चाहता है ये दिल !

ऐसा क्यों चाहे ये दिल ?

कैसे जिए हम शाही जिंदगी
नींद कैसे हो आँखों में
जहाँ करोड़ों अपनों को
एक छत्त भी नहीं नसीब है !
कैसे तलब हो शाही खाने की
जहाँ करोड़ों भूखे सोते है !

तो अब क्या चाहता है ये दिल ?

दिल चाहता है
दिन के उजाले में
वो तंग गलियां भी उजाली हो !
सबके सरपे पक्का छत अपना हो
सबके लिए दो वक़्त के खाने हो
सब अन्नदाता खुशहाल हमारे हो !!

तो अब क्या सोचता है करने को ये दिल ?

हमको ऐसा कुछ करना है की
ना कोई होगा बेरोजगार यहाँ पर
ना मांगेगा कोई भीख यहाँ पर
आत्मनिर्भर बने ये देश हमारा
फिर सोने की चिड़िया कहलाये !

अंत में

गर मिलजाए मौका एक ऐसा
इस धरती का कर्ज चुकाने को
दुश्मन के गोली खाने को
पहला छाती ये अपना हो !

– Written by Anil Sinha

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July 21

बरसात की एक रात !

वो बात वो रात
बरसात की वो रात
हरदम याद रहेगी!

जिसदिन हमारे जूनूने मोहब्बत की
तक़रीर लिखी गई थी!

मोहब्बत करते थे
बेइन्तहाँ उनसे
पर दरमयां हमारे
अमीरी गरीबी की दिवार खड़ी थी!

मिन्नतें आरजू, दिल की पेशकश
उन्हें जो रिझा ना पाई
तो हमने उन्हें पटाने की
एक फ़िल्मी तरकीब लगाई थी!

भाड़े के कुछ गुंडों को
उन्हें छेड़ने को उनके पीछे मैंने लगाई थी!

उस बरसात की रात
जब लगे गुंडे उन्हें छेड़ने
प्रेयशी को बचाने को हीरो बनके मैंने दौड़ लगाई थी!

पर मै चकराया वो भाड़े के गुंडे
मेरी ही सचमे करने लगे पिटाई
बात जबतक समझ मे आती
वो गुंडे तो असली थे काफ़ी हुई पिटाई थी!

अब इन गुंडों से अपनी प्रेयशी को
हर हाल मुझे बचानी थी
तब दाओ लगाके अपने जान का
मैंने लड़ी लड़ाई थी!

लहू लुहान हो  उन गुंडों को मैंने मार भगाई थी
लिपट प्यार से मेरी प्रेयशी अपना आभार जताई थी!

चूम चूम कर मेरे ज़ख्ममो पे
प्यार का मरहम लगाई थी!

ऊंच नींच अमीरी गरीबी की
टूट गई सारी दीवारें
लग के छाती से मेरे
I Love you
जब वो बोली थी!

वो बात वो रात
बरसात की वो रात
हरदम याद रहेगी!!

– अनिल सिन्हा

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July 21

क्यों मै ऐसा लिखता हूँ ?

सोच रहे होंगे मेरे प्रिय
बंधु बांधव और शखा
क्यों मै ऐसा लिखता हूँ!

इस ढलती उम्र के संध्या कल मे
भूल भुला कर यौवन की बाते
सब जब प्रकृति और धर्म की चर्चा करते हैं
बीच उन्ही के
क्यों मै ऐसा लिखता हूँ!

जिस विचार से देखेंगे खुद को
वैसा ही खुद को पायेंगे दर्पण मे
सोच अगर बुढ़ापे की होंगी
तो भारी जवानी मे भी
खुद को बूढा जैसा पायेंगे!

पर अगर सोच बुढ़ापे मे भी
ज़वा दिलो की होंगी
दिल आपका ज़वा रहेगा
पास नहीं फटकेगें बुढ़ापे की बीमारी
जो रक्त मे गर्मी होंगी!

जीवन के उस मधुरिम पल को आप
जब जब करते होंगे याद
एक अजीब सी शिहरन
और रक्त मे गर्मी आती होंगी!

उसी रक्त की गर्मी को लौटने को
ज़वा आपको रखने को
मै ऐसा लिखता हूँ!

चाह यही दिल मे रखता हूँ
खुद रहू ज़वा और मेरे संगी साथी भी ज़वा रहे
नहीं उम्र की कोई शरहद हो
स्वच्छन्द विचारों का विचरण हो!

सहमत तो सारे हैं मेरे विचार से
कुछ ने तो मुस्कुराकर कुछ
ताली बजाकर अपनी सहमति जताई
तो मानो  हम सबको
अपने कॉलेज के दिनों की याद दिलाई
गई जवानी आज हमारी फिर लौटकर आई
गई जवानी आज हमारी फिर लौटकर आई !!

अनिल सिन्हा !

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March 27

सतरंगी होली !

होली के दिन हम निकल पड़े
ले रंग ग़ुलाल और पिचकारी
पर सूने थे राह सभी
हर चौंक मिले पुलिस अधिकारी!

माइक पे वे बोल रहें थे
कोरोना से बचाव के लिये
मास्क लगाना और सोशल डिस्टेंसिंग जरुरी हैं!

अब कैसे खेले  हम सतरंगी होली
कैसे लगाएं अपने संगी साथी के गालो ये रंग ग़ुलाल
सोचा बेशक़ नहीं निकले हैं लोग बाहर पुलिसवालों के
डर से
पर चाहत तो सबकी होंगी वो भी खेले सतरंगी होली!

यही सोच मै चल पड़ा अपने परम मित्र शर्माजी के घर
जाकर बेल दबाया और दो तीन बार दबाया तो
अंदर से आवाज आई, कौन हैं?

मै चहक कर बोला भाभी जी मै हूँ!
दरवाजा हल्का सा खोल भाभीजी अंदर से बोली
वो तो घर पर नहीं हैं!

मै चकराया वो निखट्टू घरमे पडेरहने वाला
आज बाहर कैसे जासकता हैं,फिर भी हसकर मै बोला
भाभीजी आज होली हैं
चलिए आपको हीं ग़ुलाल लगाता हूँ!
तुरंत पीछे से आवाज़ आई,बोलो दूर रहें कोरोना हैं!
पीछे हटकर मै बोला
ठीक बोले दोस्त भूल गयाथा मै,
बीच हमारे कोरोना आगयी हैं इसलिए आपस की दूरी जरूरी हैं!

फिर सोचा क्या कोरोना के डर से
द्वार पे खड़े मेहमान का यूँ तिरस्कार जरुरी हैं!

लौट कर घर वापस जो आया तो पत्नी बोली
क्या क्या पकवान खाकर आये हो दोस्त के घर से
एक लम्बा ढकार ले मै बोला
मत पूछो क्या  नहीं खाया हैं!

फिर अपने आप से बोला
गम खाया हैं और तिरस्कार की सतरंगी होली खेली हैं
सच में सोशल डिस्टेंसिंग बहुत जरुरी हैं होली हैं भाई होली हैं!

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February 28

तुम बिन !

रात बीत जाती हैं करवटे बदल बदल के
नींद नहीं आती हैं मुझे अब तुम बिन!

रात भर डस्ती हैं तन्हाई मुझे
आगोश में सिमटे तेरे गेसुवो कि याद आती हैं मुझे!

मै जो शौतन के नामपे चिढ़ाता था तुझे
दिखा के खाली बिस्तर आज वहीँ चिढ़ाती हैं मुझे!

पास होकर तन्हाई का कोई एहसास हीं ना था
मृग सा कस्तूरी मै बाहर ढूंढ़ रहा था!

नहीं पाता था जिंदगी
इतनी वीरान होजायेगी तुम बिन!

अब तो लगता हैं
एक कदम नहीं चल पाउँगा तुम बिन!

कुछ दिनों की ये जुदाई काफ़ी हैं
एहसास दिलाने के लिये कि नहीं जी पाऊंगा तुम बिन!

दुनियाँ का सारा फ़साना रंगिनियाँ
नहीं कामके मेरे अब तुम बिन!
उम्र के इस दहलीज पर शर्म आती हैं मुझेये बताने  के लिये कि नींद नहीं आती हैं मुझे तुम बिन!

रात बीत जाती हैं करवट बदल बदल के
नींद नहीं आती हैं मुझे अब तुम बिन!!

— Written by Anil Sinha

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February 28

लक्ष्य हमारा लक्ष्य तुम्हारा

कुछ लक्ष्य हमारा हैं
कुछ लक्ष्य तुम्हारा हैं!

ये वाज़िब हैं
हर इंसा का अपना लक्ष्य  अलग हीं होता हैं!

पर ऐसा भी कुछ लक्ष्य हैं
जो सामूहिक होता हैं!

लड़ी लड़ाई हमने पूरे सिद्दत से
लक्ष्य बहुत सा हासिल की हैं!
बस  एक बचा था लक्ष्य हमारा पैसो के आजादी का
पर लड़ते लड़ते बीच लड़ाई धनुष मेरा टूट गया!

मै असहाय हुआ हीं था कि मेरा अर्जुन पास खड़ा था
अब वो बारी बारी हम दोनों के लक्ष्य को साध रहा था!

मै कृष्णा बना रथ हाँक रहा
लक्ष्य भेद रहा मेरा अर्जुन हैं!

अर्थ अभाव का वो दानव मायावी सा लगता हैं 
तभी तो अर्जुन के वाणो से मरकर भी वो जिन्दा होता हैं!

रथ रोक सारथी तब अर्जुन से कहता हैं
छे तीर तुम्हारे तरकश से चुन कर देता हूँ!

उन तीरो से निरंतर उस दानव पे करो प्रहार
कटकर अंग उस दानव के छओ दिशाओ में जायेगे
फिर लौट कर वो आपस में जुट ना पायेंगे!

मरजायेगा जब अभाव का दानव
पैसो के आजादी का लक्ष्य तुम्हारा सध जायेगा
ये सामूहिक लक्ष्य हमारा सध जायेगा!!

— Written by Anil Sinha

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January 31

बून्द… बून्द !

बून्द बून्द से ही तो गागर भरता हैं
ऐसे ही कई करोड़ो गागर से सागर भरता हैं
झुककर एक एक बून्द को नमन सागर भी करता हैं !

स्वरूप भले ही हो छोटा उसका
जो हमें श्रेष्ठ बनाता हैं
श्रेष्ठ सदा हमसे वो होता हैं जो श्रेष्ठ हमें बनाता हैं !

वास्तव में तो श्रेष्ठ कभी खुद को श्रेष्ठ नहीं बताता हैं
वृक्ष फलो से लदा हुआ सा खुद झुक जाता हैं
नहीं झुके अहम् से अपने जो वही बबूल कहलाता हैं !

सागर को ही अगर देखलो नहीं अहम् उसको कोई हैं
रूप बदल कर वो बादल भी बनजाता हैं
और बून्द बून्द बरस कर प्रकृति का साथ  निभाता हैं !

समरसता और जीने की कला प्रकृति हमें सिखाता है
पर हममेसे कितनो को ये समझमें में आता हैं !

हमने  तो दुनियाँ के इस परिबार को
जाती धर्म और मुल्क के नाम पे बाँट रखा हैं !
बून्द बून्द मिलकर बून्द  जहाँ सागर बनाते हैं
हमने तो सागर से अपने परिवार को बूंदो में बांटा हैं !

जीवन का ये मूल मंत्र अगर समझ में आया हैं
तो चलो हम सब बून्द आपस में मिलकर  पहले गागर
फिर गागर से सागर बनाते हैं !

हम सारे बूंदो का सौहार्द फिर सागर सा गहरा होजाता हैं
झुक कर एक एक बून्द को नमन सागर भी करता हैं !!!

— Written by Anil Sinha

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January 31

नये वर्ष की नई शपथ !

नये वर्ष के आते हीं हमने
शुभकामनाओ की झड़ी लगाई!

कहीं व्हाट्स ऍप और एस ऍम एस तो
कहीं हाथ मिलाकर दी बधाई और
कहीं बांटी फूल मिठाई!

जख्म अभीतक भरे नहीं थे कि
ले नई उमंगो को, नव वर्ष दरवाजे पे आई!

अब उसका सत्कार तो करना हीं था
ला मुस्कुराहट चेहरे पर हमने
शुभसंदेशों की झड़ी लगाई!

चाँद सितारों तक को पाने की सारी दुआएं हमने भी पाई
पर उन सपनो को कैसे पूरा करना हैं
नहीं किसी ने मुझे बताई!

अब बहुत मिलचुका सपनो का उपहार
अब सोचना था
उन सपनो को पूरा करने का
कौन सा राह करें अख्तियार!

नये वर्ष की नई शपथ ले
अब हम सब  हैं तैयार!!

जहाँ बच्चे मन लगा पढ़ने का लेते हैं शपथ
वहीँ युवा देश का अपने कर्मो से
देश को सम्मान दिलाने का लेते हैं शपथ!

तथा देश के बड़े बुजुर्ग नेतागण
जनहित में जो भी कानून बनाते हैं
उन कानूनों का अपने संविधान का
पालन करने का हम सब लेते हैं शपथ!

इस नये वर्ष की नई शपथ पे
अमल कर हम सब देश को
नई उचाईयों पर ले जाने का लेते हैं शपथ !!!

— Written by Anil Sinha

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January 31

समय कभी रुकता नहीं

ऐ समय क्योँ कभी तू रुकता नहीं
करोडो वर्ष से तू चलता हीं रहा हैं
क्या कभी तू थकता नहीं!

करोडो साथ चले तुम्हारे
कुछ दूर चले साथ तुम्हारे!

कुछ का साथ समय ने छोड़ा
कुछ ने साथ समय का छोड़ा!

जो छूट गये सो छूट गये
समय अटक कर राह कभी किसी का देखा नहीं!

समय यही बताता हैं सबको समय लौट कर आता नहीं
जो समय गँवाता हैं वो जग में कुछ बन पाता नहीं!

वहीँ समय का ज्ञान जिसे हो जाता सबकुछ वो पालेता हैं
कीर्तिमान रचता हैं जग में नया इतिहाँस बनाता हैं!

सच मानो तो
ये समय हीं हैं जो रंक को राजा
और राजा को रंक बनाता हैं!

कहते हैं कई साम्राज्य ऐसे भी थे
जहाँ सूरज कभी अस्त नहीं होता था
पर समय के साथ आज वो इतिहाँस के पन्नों पे हैं!

यहाँ तक कि हमारे राम कृष्णा और पैग़म्बर भी
आज हमारे ग्रंथो के शोभा हैं!

ये बातें हमें बताती हैं
दुनियाँ में सबसे बलवान समय  हीं हैं!

तभी तो समय कभी रुकता नहीं
कभी थकता नहीं हैं!!

— Written by Anil Sinha

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January 31

एक पर्व मकरसंक्रन्ति

नये वर्ष का पहला पर्व
हम लोहड़ी मकारसंक्रन्ति या पोंगल
के रूप में मानते हैं!

भले हीं हम भाषा और छेत्र के आधार पर
अलग अलग तरीके से मानते हैं
पर उद्देश्य मूल उसका एकहि होता हैं!

क़ृषि प्रधान अपना ये देश
जब पहला फसल काटकर खलिहानो में लाता हैं
तो नये साल का नये फसल का ये त्यौहार मनाता हैं!

कोई लकड़ी या पराली जलाकर
उसके फेरे लेकर उसमे धान रावडी
समर्पित कर उसे लोहड़ी के रूप मनाता हैं!

कोई नये धान का चूड़ा तिल और गुड़ का लड्डू
तथा नये चावल दाल और आलू से खिचड़ी पका
इसे तिलसंक्रान्त या खिचड़ी के रूप में मानते हैं!

कोई नये फसल से नया पकवान बना भोग लगा
दीप और आतिस्बाज़ी जला
इसे पोंगल के रूप मानते हैं!

अब कड़ी मेहनत से फुर्सत पाकर
कहीं लोग पतंग उड़ाते हैं!

तो कहीं जलाकट्टु के माध्यम से
अपने साहस का परिचय देते हैं!

ये सारे पर्व हमारे समाज को जोड़ने
तथा संस्कृति और परम्परा को
कायम रखने का एक प्यारा विधा हैं!

और इन्ही में एक विधा का नाम मकरसंक्रान्ति हैं
नये वर्ष का पहला पर्व ये मकरसंक्रान्ति हैं!!

— Written by Anil Sinha

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January 2

धुंध !

इस धुंधली धुंध के शाया में 
जीवन जंजाल के माया में
नहीं सूझता जीवन पथ हैं
कौन सा पथ गर्त को जाता हैं
कौन सा पथ मंजिल को जाता हैं!

इस धुंधली धुंध के शाया में
नहीं सूझता  जीवन पथ हैं 
एक  बटोही जीवन पथ का,
जीवन के चौराहे पे खड़ा
असमंजस में पड़ा हुआ हैं
कौन सा पथ मंजिल को जाता हैं!

ना हीं  अब जीवन के पल ज्यादा हैं
ना पैरों में बल ज्यादा हैं
जो  हर  राह पर चल कर परखे
कौन सा पथ मंजिल को जाता हैं!

ये आँखों कि कमजोरी हैं या
मौसम में हीं धुंध सा छाया हैं
ना हीं साथ पथिक ना हम शाया हैं
कौन बताये कौन सा पथ मंजिल को जाता हैं!

तीन पहर जीवन के बीत चुके हैं
अब एक पहर हीं बाकी हैं
अब तक शंशय बना हुआ हैं
कौन सा पथ मंजिल को जाता हैं!

हार ना मानी जिसने अब तक
धुंध उम्र थकान या आँखों कि कमजोरी
कैसे बन सकती थी उसके राह का रोड़ा
निश्चय कर जिस पथ  चला वो पथ मंजिल को जाता हैं!

दृढ निश्चय कर ज्यो हीं वो आगे बढ़ता हैं
रथ पे सवार कोई आता उसके जीवन के शंध्या काल में
बिठा उसे ले जाता हैं
उस पथ जो उसके मंजिल को जाता हैं!!