November 15

हर युग के राम !

जब जब आई
विपति धरा पर
तब तब अवतरित
हुए प्रभु श्री राम।

सतयुग मे श्रीस्टि
रचने को आये
एक नया ब्रम्हांड रचाये
तब वो, ब्रम्हा, विष्णु, महेश कहलाये।

त्रेता युग मे
जब राक्षसो ने उत्पात मचाये
देवगन और ऋषिमुनी त्राहिमाम का गुहार लगाये
तब अवतरित हुए प्रभु,श्री राम बनकर आये 

द्वापर युग मे
मानव जब बाहुबली बन
कंश, दुर्योधन कहलाये
तब प्रभु, कृष्ण और अर्जुन बन आये।

कलियुग मे
प्रभु कई बार धरा पर आये
कभी जिसश, अल्लाह,
गुरुनानक तथा विवेकानंद कहलाये।

कलियुग का युग तो
काफ़ी लम्बा हैं
और मचा मानव का दंगा हैं
इसे सुधारने योगी और मोदीजी आये हैं
शायद कालांतर मे ये भी श्री राम सा पूजे जाये
क्यों कि हर युग मे प्रभु राम नाम बदल कर आये
प्रभु राम, नाम बदल कर आये।।

अनिल सिन्हा

Category: Poems | LEAVE A COMMENT
November 15

चंदा मामा !

चंदा मामा
कहाँ हो तुम
गगन अँधेरी रात की
तुम बिन सूनी सूनी हैँ।

जब दिखे
तुम्हे आशमा मे
ईद तीज पर लोगों ने
देख तुम्ह
तोड़े हैँ व्रत अपने।

अनुसन्धान का विषय बने तुम
पुरे विश्व का
पर भारत ने बाज़ी मारी
जब सर्व प्रथम
उसने तुम्हारे दक्षिणी ध्रुव पर
अपनी चंद्रयान 3 उतारी।

सबके लिये
तुम जो भी हो
पर मेरे तुम
एकलौते मामा हो
लेकर अपने आशमा के सारे तारे
कहाँ छुपे हो चंदा मामा।

तब ऊपर से
मामा ने आवाज़ लगाई
जीवन मे
एक पल ऐसा भी आता हैँ जब
हम सबका अस्तित्व
काले घनेरे बादलों मे छुप जाता हैँ।

वैसा हीं एक पल
मेरे साथ भी आया हैँ
और मै अपने अस्तित्व की
लड़ रहा हूँ लड़ाई
निकाल बादलों के ओट से
मै जल्द मुखर हो जाउंगा
अपने भांजे से मिल पाउँगा।।

Category: Poems | LEAVE A COMMENT
November 15

एक लाटरी मेरे नाम !

काश एक लाटरी मेरे नाम आ जाता 
नकली मंगालशुत्र सोने का हो जाता 
चालीस साल मे एक मंगलशुत्र 
नहीं बनापाया इस तोहमत से बचजाता।

काश एक लाटरी मेरे नाम आ जाता 
नहीं किया स्वर्णदान बेटी के शादी मे 
एक भिखारी बाप कहलाने के 
जिल्लत से बच जाता।

काश एक लाटरी मेरे नाम आ जाता 
जगह जगह से चुते छत का 
मरम्मत करवा कर अपने 
परिवार को चैन का नींद सुला पाता।

काश एक लाटरी मेरे नाम आ जाता 
मै भी अपने बच्चों को 
अंग्रेजी स्कूलों मे पढ़ा 
बड़ा आदमी बना पाता।

काश एक लाटरी मेरे नाम आ जाता 
एक दुकान छोटा सा ले 
रेहड़ी पटरी वाले के नगह 
मै भी एक सेठ कहलाने लग जाता।

Category: Poems | LEAVE A COMMENT
October 28

मै एक गिलहरी प्रभु राम की

मै एक गिलहरी प्रभु राम की 
एक गिलहरी प्रभु राम की
सामर्थ नहीं ज्यादा फिर भी
स्नेह अपार प्रतिप्रभु राम की
मै एक गिलहरी प्रभु राम की।

कैसे पार करेंगे प्रभु सागर
ये चिंता ना हो प्रभु को मेरे
क्यों कर चिंता हरलु प्रभु का 
यही सोच मै चिंतित थी
 मै एक गिलहरी प्रभु राम की।

सिकन एक जो आजाये
मेरे प्रभु के मुख्यमंडल पर
तो धिक्कार हैं मेरे जीवन पर
यही सोच मै चिंतित थी 
मै एक गिलहरी प्रभु राम की।

वक्त नहीं कुछ ज्यादा हैं
सीता माता को छुड़ाने 
प्रभु को सागर पार तो जाना हैं
इस सागर पे बनरहे सेतु को
जल्दी बनवाने मे
आन पड़ी हैं मेरे श्रमदान की
मै एक गिलहरी प्रभु राम की।

दौड़ दौड़ कर, बार बार 
मुख मे लेकर मिट्टी के टुकड़े को
मै पाट रहीं थी सागर को
पर नजाने कैसे पड़ गई
नजर मुझपर मेरे प्रभु राम की
मै एक गिलहरी प्रभु राम की।

प्रभु आये मेरे पास स्नेह से मुझे सहलाये
मेरे जीवन को धन्य बनाये
मै तो हो गई प्रभु की दाश
मिट गई जीवन की प्यास 
मै एक गिलहरी प्रभु राम की
मै एक गिलहरी प्रभु राम की।।

Category: Poems | LEAVE A COMMENT
July 21

बरसात की एक रात !

वो बात वो रात
बरसात की वो रात
हरदम याद रहेगी!

जिसदिन हमारे जूनूने मोहब्बत की
तक़रीर लिखी गई थी!

मोहब्बत करते थे
बेइन्तहाँ उनसे
पर दरमयां हमारे
अमीरी गरीबी की दिवार खड़ी थी!

मिन्नतें आरजू, दिल की पेशकश
उन्हें जो रिझा ना पाई
तो हमने उन्हें पटाने की
एक फ़िल्मी तरकीब लगाई थी!

भाड़े के कुछ गुंडों को
उन्हें छेड़ने को उनके पीछे मैंने लगाई थी!

उस बरसात की रात
जब लगे गुंडे उन्हें छेड़ने
प्रेयशी को बचाने को हीरो बनके मैंने दौड़ लगाई थी!

पर मै चकराया वो भाड़े के गुंडे
मेरी ही सचमे करने लगे पिटाई
बात जबतक समझ मे आती
वो गुंडे तो असली थे काफ़ी हुई पिटाई थी!

अब इन गुंडों से अपनी प्रेयशी को
हर हाल मुझे बचानी थी
तब दाओ लगाके अपने जान का
मैंने लड़ी लड़ाई थी!

लहू लुहान हो  उन गुंडों को मैंने मार भगाई थी
लिपट प्यार से मेरी प्रेयशी अपना आभार जताई थी!

चूम चूम कर मेरे ज़ख्ममो पे
प्यार का मरहम लगाई थी!

ऊंच नींच अमीरी गरीबी की
टूट गई सारी दीवारें
लग के छाती से मेरे
I Love you
जब वो बोली थी!

वो बात वो रात
बरसात की वो रात
हरदम याद रहेगी!!

– अनिल सिन्हा

Category: Poems | LEAVE A COMMENT
July 21

क्यों मै ऐसा लिखता हूँ ?

सोच रहे होंगे मेरे प्रिय
बंधु बांधव और शखा
क्यों मै ऐसा लिखता हूँ!

इस ढलती उम्र के संध्या कल मे
भूल भुला कर यौवन की बाते
सब जब प्रकृति और धर्म की चर्चा करते हैं
बीच उन्ही के
क्यों मै ऐसा लिखता हूँ!

जिस विचार से देखेंगे खुद को
वैसा ही खुद को पायेंगे दर्पण मे
सोच अगर बुढ़ापे की होंगी
तो भारी जवानी मे भी
खुद को बूढा जैसा पायेंगे!

पर अगर सोच बुढ़ापे मे भी
ज़वा दिलो की होंगी
दिल आपका ज़वा रहेगा
पास नहीं फटकेगें बुढ़ापे की बीमारी
जो रक्त मे गर्मी होंगी!

जीवन के उस मधुरिम पल को आप
जब जब करते होंगे याद
एक अजीब सी शिहरन
और रक्त मे गर्मी आती होंगी!

उसी रक्त की गर्मी को लौटने को
ज़वा आपको रखने को
मै ऐसा लिखता हूँ!

चाह यही दिल मे रखता हूँ
खुद रहू ज़वा और मेरे संगी साथी भी ज़वा रहे
नहीं उम्र की कोई शरहद हो
स्वच्छन्द विचारों का विचरण हो!

सहमत तो सारे हैं मेरे विचार से
कुछ ने तो मुस्कुराकर कुछ
ताली बजाकर अपनी सहमति जताई
तो मानो  हम सबको
अपने कॉलेज के दिनों की याद दिलाई
गई जवानी आज हमारी फिर लौटकर आई
गई जवानी आज हमारी फिर लौटकर आई !!

अनिल सिन्हा !

Category: Poems | LEAVE A COMMENT
March 27

सतरंगी होली !

होली के दिन हम निकल पड़े
ले रंग ग़ुलाल और पिचकारी
पर सूने थे राह सभी
हर चौंक मिले पुलिस अधिकारी!

माइक पे वे बोल रहें थे
कोरोना से बचाव के लिये
मास्क लगाना और सोशल डिस्टेंसिंग जरुरी हैं!

अब कैसे खेले  हम सतरंगी होली
कैसे लगाएं अपने संगी साथी के गालो ये रंग ग़ुलाल
सोचा बेशक़ नहीं निकले हैं लोग बाहर पुलिसवालों के
डर से
पर चाहत तो सबकी होंगी वो भी खेले सतरंगी होली!

यही सोच मै चल पड़ा अपने परम मित्र शर्माजी के घर
जाकर बेल दबाया और दो तीन बार दबाया तो
अंदर से आवाज आई, कौन हैं?

मै चहक कर बोला भाभी जी मै हूँ!
दरवाजा हल्का सा खोल भाभीजी अंदर से बोली
वो तो घर पर नहीं हैं!

मै चकराया वो निखट्टू घरमे पडेरहने वाला
आज बाहर कैसे जासकता हैं,फिर भी हसकर मै बोला
भाभीजी आज होली हैं
चलिए आपको हीं ग़ुलाल लगाता हूँ!
तुरंत पीछे से आवाज़ आई,बोलो दूर रहें कोरोना हैं!
पीछे हटकर मै बोला
ठीक बोले दोस्त भूल गयाथा मै,
बीच हमारे कोरोना आगयी हैं इसलिए आपस की दूरी जरूरी हैं!

फिर सोचा क्या कोरोना के डर से
द्वार पे खड़े मेहमान का यूँ तिरस्कार जरुरी हैं!

लौट कर घर वापस जो आया तो पत्नी बोली
क्या क्या पकवान खाकर आये हो दोस्त के घर से
एक लम्बा ढकार ले मै बोला
मत पूछो क्या  नहीं खाया हैं!

फिर अपने आप से बोला
गम खाया हैं और तिरस्कार की सतरंगी होली खेली हैं
सच में सोशल डिस्टेंसिंग बहुत जरुरी हैं होली हैं भाई होली हैं!

Category: Poems | LEAVE A COMMENT
February 28

तुम बिन !

रात बीत जाती हैं करवटे बदल बदल के
नींद नहीं आती हैं मुझे अब तुम बिन!

रात भर डस्ती हैं तन्हाई मुझे
आगोश में सिमटे तेरे गेसुवो कि याद आती हैं मुझे!

मै जो शौतन के नामपे चिढ़ाता था तुझे
दिखा के खाली बिस्तर आज वहीँ चिढ़ाती हैं मुझे!

पास होकर तन्हाई का कोई एहसास हीं ना था
मृग सा कस्तूरी मै बाहर ढूंढ़ रहा था!

नहीं पाता था जिंदगी
इतनी वीरान होजायेगी तुम बिन!

अब तो लगता हैं
एक कदम नहीं चल पाउँगा तुम बिन!

कुछ दिनों की ये जुदाई काफ़ी हैं
एहसास दिलाने के लिये कि नहीं जी पाऊंगा तुम बिन!

दुनियाँ का सारा फ़साना रंगिनियाँ
नहीं कामके मेरे अब तुम बिन!
उम्र के इस दहलीज पर शर्म आती हैं मुझेये बताने  के लिये कि नींद नहीं आती हैं मुझे तुम बिन!

रात बीत जाती हैं करवट बदल बदल के
नींद नहीं आती हैं मुझे अब तुम बिन!!

— Written by Anil Sinha

Category: Poems | LEAVE A COMMENT
February 28

लक्ष्य हमारा लक्ष्य तुम्हारा

कुछ लक्ष्य हमारा हैं
कुछ लक्ष्य तुम्हारा हैं!

ये वाज़िब हैं
हर इंसा का अपना लक्ष्य  अलग हीं होता हैं!

पर ऐसा भी कुछ लक्ष्य हैं
जो सामूहिक होता हैं!

लड़ी लड़ाई हमने पूरे सिद्दत से
लक्ष्य बहुत सा हासिल की हैं!
बस  एक बचा था लक्ष्य हमारा पैसो के आजादी का
पर लड़ते लड़ते बीच लड़ाई धनुष मेरा टूट गया!

मै असहाय हुआ हीं था कि मेरा अर्जुन पास खड़ा था
अब वो बारी बारी हम दोनों के लक्ष्य को साध रहा था!

मै कृष्णा बना रथ हाँक रहा
लक्ष्य भेद रहा मेरा अर्जुन हैं!

अर्थ अभाव का वो दानव मायावी सा लगता हैं 
तभी तो अर्जुन के वाणो से मरकर भी वो जिन्दा होता हैं!

रथ रोक सारथी तब अर्जुन से कहता हैं
छे तीर तुम्हारे तरकश से चुन कर देता हूँ!

उन तीरो से निरंतर उस दानव पे करो प्रहार
कटकर अंग उस दानव के छओ दिशाओ में जायेगे
फिर लौट कर वो आपस में जुट ना पायेंगे!

मरजायेगा जब अभाव का दानव
पैसो के आजादी का लक्ष्य तुम्हारा सध जायेगा
ये सामूहिक लक्ष्य हमारा सध जायेगा!!

— Written by Anil Sinha

Category: Poems | LEAVE A COMMENT
January 31

बून्द… बून्द !

बून्द बून्द से ही तो गागर भरता हैं
ऐसे ही कई करोड़ो गागर से सागर भरता हैं
झुककर एक एक बून्द को नमन सागर भी करता हैं !

स्वरूप भले ही हो छोटा उसका
जो हमें श्रेष्ठ बनाता हैं
श्रेष्ठ सदा हमसे वो होता हैं जो श्रेष्ठ हमें बनाता हैं !

वास्तव में तो श्रेष्ठ कभी खुद को श्रेष्ठ नहीं बताता हैं
वृक्ष फलो से लदा हुआ सा खुद झुक जाता हैं
नहीं झुके अहम् से अपने जो वही बबूल कहलाता हैं !

सागर को ही अगर देखलो नहीं अहम् उसको कोई हैं
रूप बदल कर वो बादल भी बनजाता हैं
और बून्द बून्द बरस कर प्रकृति का साथ  निभाता हैं !

समरसता और जीने की कला प्रकृति हमें सिखाता है
पर हममेसे कितनो को ये समझमें में आता हैं !

हमने  तो दुनियाँ के इस परिबार को
जाती धर्म और मुल्क के नाम पे बाँट रखा हैं !
बून्द बून्द मिलकर बून्द  जहाँ सागर बनाते हैं
हमने तो सागर से अपने परिवार को बूंदो में बांटा हैं !

जीवन का ये मूल मंत्र अगर समझ में आया हैं
तो चलो हम सब बून्द आपस में मिलकर  पहले गागर
फिर गागर से सागर बनाते हैं !

हम सारे बूंदो का सौहार्द फिर सागर सा गहरा होजाता हैं
झुक कर एक एक बून्द को नमन सागर भी करता हैं !!!

— Written by Anil Sinha

Category: Poems | LEAVE A COMMENT