July 21

बरसात की एक रात !

वो बात वो रात
बरसात की वो रात
हरदम याद रहेगी!

जिसदिन हमारे जूनूने मोहब्बत की
तक़रीर लिखी गई थी!

मोहब्बत करते थे
बेइन्तहाँ उनसे
पर दरमयां हमारे
अमीरी गरीबी की दिवार खड़ी थी!

मिन्नतें आरजू, दिल की पेशकश
उन्हें जो रिझा ना पाई
तो हमने उन्हें पटाने की
एक फ़िल्मी तरकीब लगाई थी!

भाड़े के कुछ गुंडों को
उन्हें छेड़ने को उनके पीछे मैंने लगाई थी!

उस बरसात की रात
जब लगे गुंडे उन्हें छेड़ने
प्रेयशी को बचाने को हीरो बनके मैंने दौड़ लगाई थी!

पर मै चकराया वो भाड़े के गुंडे
मेरी ही सचमे करने लगे पिटाई
बात जबतक समझ मे आती
वो गुंडे तो असली थे काफ़ी हुई पिटाई थी!

अब इन गुंडों से अपनी प्रेयशी को
हर हाल मुझे बचानी थी
तब दाओ लगाके अपने जान का
मैंने लड़ी लड़ाई थी!

लहू लुहान हो  उन गुंडों को मैंने मार भगाई थी
लिपट प्यार से मेरी प्रेयशी अपना आभार जताई थी!

चूम चूम कर मेरे ज़ख्ममो पे
प्यार का मरहम लगाई थी!

ऊंच नींच अमीरी गरीबी की
टूट गई सारी दीवारें
लग के छाती से मेरे
I Love you
जब वो बोली थी!

वो बात वो रात
बरसात की वो रात
हरदम याद रहेगी!!

– अनिल सिन्हा

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July 21

क्यों मै ऐसा लिखता हूँ ?

सोच रहे होंगे मेरे प्रिय
बंधु बांधव और शखा
क्यों मै ऐसा लिखता हूँ!

इस ढलती उम्र के संध्या कल मे
भूल भुला कर यौवन की बाते
सब जब प्रकृति और धर्म की चर्चा करते हैं
बीच उन्ही के
क्यों मै ऐसा लिखता हूँ!

जिस विचार से देखेंगे खुद को
वैसा ही खुद को पायेंगे दर्पण मे
सोच अगर बुढ़ापे की होंगी
तो भारी जवानी मे भी
खुद को बूढा जैसा पायेंगे!

पर अगर सोच बुढ़ापे मे भी
ज़वा दिलो की होंगी
दिल आपका ज़वा रहेगा
पास नहीं फटकेगें बुढ़ापे की बीमारी
जो रक्त मे गर्मी होंगी!

जीवन के उस मधुरिम पल को आप
जब जब करते होंगे याद
एक अजीब सी शिहरन
और रक्त मे गर्मी आती होंगी!

उसी रक्त की गर्मी को लौटने को
ज़वा आपको रखने को
मै ऐसा लिखता हूँ!

चाह यही दिल मे रखता हूँ
खुद रहू ज़वा और मेरे संगी साथी भी ज़वा रहे
नहीं उम्र की कोई शरहद हो
स्वच्छन्द विचारों का विचरण हो!

सहमत तो सारे हैं मेरे विचार से
कुछ ने तो मुस्कुराकर कुछ
ताली बजाकर अपनी सहमति जताई
तो मानो  हम सबको
अपने कॉलेज के दिनों की याद दिलाई
गई जवानी आज हमारी फिर लौटकर आई
गई जवानी आज हमारी फिर लौटकर आई !!

अनिल सिन्हा !

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March 27

सतरंगी होली !

होली के दिन हम निकल पड़े
ले रंग ग़ुलाल और पिचकारी
पर सूने थे राह सभी
हर चौंक मिले पुलिस अधिकारी!

माइक पे वे बोल रहें थे
कोरोना से बचाव के लिये
मास्क लगाना और सोशल डिस्टेंसिंग जरुरी हैं!

अब कैसे खेले  हम सतरंगी होली
कैसे लगाएं अपने संगी साथी के गालो ये रंग ग़ुलाल
सोचा बेशक़ नहीं निकले हैं लोग बाहर पुलिसवालों के
डर से
पर चाहत तो सबकी होंगी वो भी खेले सतरंगी होली!

यही सोच मै चल पड़ा अपने परम मित्र शर्माजी के घर
जाकर बेल दबाया और दो तीन बार दबाया तो
अंदर से आवाज आई, कौन हैं?

मै चहक कर बोला भाभी जी मै हूँ!
दरवाजा हल्का सा खोल भाभीजी अंदर से बोली
वो तो घर पर नहीं हैं!

मै चकराया वो निखट्टू घरमे पडेरहने वाला
आज बाहर कैसे जासकता हैं,फिर भी हसकर मै बोला
भाभीजी आज होली हैं
चलिए आपको हीं ग़ुलाल लगाता हूँ!
तुरंत पीछे से आवाज़ आई,बोलो दूर रहें कोरोना हैं!
पीछे हटकर मै बोला
ठीक बोले दोस्त भूल गयाथा मै,
बीच हमारे कोरोना आगयी हैं इसलिए आपस की दूरी जरूरी हैं!

फिर सोचा क्या कोरोना के डर से
द्वार पे खड़े मेहमान का यूँ तिरस्कार जरुरी हैं!

लौट कर घर वापस जो आया तो पत्नी बोली
क्या क्या पकवान खाकर आये हो दोस्त के घर से
एक लम्बा ढकार ले मै बोला
मत पूछो क्या  नहीं खाया हैं!

फिर अपने आप से बोला
गम खाया हैं और तिरस्कार की सतरंगी होली खेली हैं
सच में सोशल डिस्टेंसिंग बहुत जरुरी हैं होली हैं भाई होली हैं!

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February 28

तुम बिन !

रात बीत जाती हैं करवटे बदल बदल के
नींद नहीं आती हैं मुझे अब तुम बिन!

रात भर डस्ती हैं तन्हाई मुझे
आगोश में सिमटे तेरे गेसुवो कि याद आती हैं मुझे!

मै जो शौतन के नामपे चिढ़ाता था तुझे
दिखा के खाली बिस्तर आज वहीँ चिढ़ाती हैं मुझे!

पास होकर तन्हाई का कोई एहसास हीं ना था
मृग सा कस्तूरी मै बाहर ढूंढ़ रहा था!

नहीं पाता था जिंदगी
इतनी वीरान होजायेगी तुम बिन!

अब तो लगता हैं
एक कदम नहीं चल पाउँगा तुम बिन!

कुछ दिनों की ये जुदाई काफ़ी हैं
एहसास दिलाने के लिये कि नहीं जी पाऊंगा तुम बिन!

दुनियाँ का सारा फ़साना रंगिनियाँ
नहीं कामके मेरे अब तुम बिन!
उम्र के इस दहलीज पर शर्म आती हैं मुझेये बताने  के लिये कि नींद नहीं आती हैं मुझे तुम बिन!

रात बीत जाती हैं करवट बदल बदल के
नींद नहीं आती हैं मुझे अब तुम बिन!!

— Written by Anil Sinha

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February 28

लक्ष्य हमारा लक्ष्य तुम्हारा

कुछ लक्ष्य हमारा हैं
कुछ लक्ष्य तुम्हारा हैं!

ये वाज़िब हैं
हर इंसा का अपना लक्ष्य  अलग हीं होता हैं!

पर ऐसा भी कुछ लक्ष्य हैं
जो सामूहिक होता हैं!

लड़ी लड़ाई हमने पूरे सिद्दत से
लक्ष्य बहुत सा हासिल की हैं!
बस  एक बचा था लक्ष्य हमारा पैसो के आजादी का
पर लड़ते लड़ते बीच लड़ाई धनुष मेरा टूट गया!

मै असहाय हुआ हीं था कि मेरा अर्जुन पास खड़ा था
अब वो बारी बारी हम दोनों के लक्ष्य को साध रहा था!

मै कृष्णा बना रथ हाँक रहा
लक्ष्य भेद रहा मेरा अर्जुन हैं!

अर्थ अभाव का वो दानव मायावी सा लगता हैं 
तभी तो अर्जुन के वाणो से मरकर भी वो जिन्दा होता हैं!

रथ रोक सारथी तब अर्जुन से कहता हैं
छे तीर तुम्हारे तरकश से चुन कर देता हूँ!

उन तीरो से निरंतर उस दानव पे करो प्रहार
कटकर अंग उस दानव के छओ दिशाओ में जायेगे
फिर लौट कर वो आपस में जुट ना पायेंगे!

मरजायेगा जब अभाव का दानव
पैसो के आजादी का लक्ष्य तुम्हारा सध जायेगा
ये सामूहिक लक्ष्य हमारा सध जायेगा!!

— Written by Anil Sinha

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January 31

बून्द… बून्द !

बून्द बून्द से ही तो गागर भरता हैं
ऐसे ही कई करोड़ो गागर से सागर भरता हैं
झुककर एक एक बून्द को नमन सागर भी करता हैं !

स्वरूप भले ही हो छोटा उसका
जो हमें श्रेष्ठ बनाता हैं
श्रेष्ठ सदा हमसे वो होता हैं जो श्रेष्ठ हमें बनाता हैं !

वास्तव में तो श्रेष्ठ कभी खुद को श्रेष्ठ नहीं बताता हैं
वृक्ष फलो से लदा हुआ सा खुद झुक जाता हैं
नहीं झुके अहम् से अपने जो वही बबूल कहलाता हैं !

सागर को ही अगर देखलो नहीं अहम् उसको कोई हैं
रूप बदल कर वो बादल भी बनजाता हैं
और बून्द बून्द बरस कर प्रकृति का साथ  निभाता हैं !

समरसता और जीने की कला प्रकृति हमें सिखाता है
पर हममेसे कितनो को ये समझमें में आता हैं !

हमने  तो दुनियाँ के इस परिबार को
जाती धर्म और मुल्क के नाम पे बाँट रखा हैं !
बून्द बून्द मिलकर बून्द  जहाँ सागर बनाते हैं
हमने तो सागर से अपने परिवार को बूंदो में बांटा हैं !

जीवन का ये मूल मंत्र अगर समझ में आया हैं
तो चलो हम सब बून्द आपस में मिलकर  पहले गागर
फिर गागर से सागर बनाते हैं !

हम सारे बूंदो का सौहार्द फिर सागर सा गहरा होजाता हैं
झुक कर एक एक बून्द को नमन सागर भी करता हैं !!!

— Written by Anil Sinha

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January 31

नये वर्ष की नई शपथ !

नये वर्ष के आते हीं हमने
शुभकामनाओ की झड़ी लगाई!

कहीं व्हाट्स ऍप और एस ऍम एस तो
कहीं हाथ मिलाकर दी बधाई और
कहीं बांटी फूल मिठाई!

जख्म अभीतक भरे नहीं थे कि
ले नई उमंगो को, नव वर्ष दरवाजे पे आई!

अब उसका सत्कार तो करना हीं था
ला मुस्कुराहट चेहरे पर हमने
शुभसंदेशों की झड़ी लगाई!

चाँद सितारों तक को पाने की सारी दुआएं हमने भी पाई
पर उन सपनो को कैसे पूरा करना हैं
नहीं किसी ने मुझे बताई!

अब बहुत मिलचुका सपनो का उपहार
अब सोचना था
उन सपनो को पूरा करने का
कौन सा राह करें अख्तियार!

नये वर्ष की नई शपथ ले
अब हम सब  हैं तैयार!!

जहाँ बच्चे मन लगा पढ़ने का लेते हैं शपथ
वहीँ युवा देश का अपने कर्मो से
देश को सम्मान दिलाने का लेते हैं शपथ!

तथा देश के बड़े बुजुर्ग नेतागण
जनहित में जो भी कानून बनाते हैं
उन कानूनों का अपने संविधान का
पालन करने का हम सब लेते हैं शपथ!

इस नये वर्ष की नई शपथ पे
अमल कर हम सब देश को
नई उचाईयों पर ले जाने का लेते हैं शपथ !!!

— Written by Anil Sinha

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January 31

समय कभी रुकता नहीं

ऐ समय क्योँ कभी तू रुकता नहीं
करोडो वर्ष से तू चलता हीं रहा हैं
क्या कभी तू थकता नहीं!

करोडो साथ चले तुम्हारे
कुछ दूर चले साथ तुम्हारे!

कुछ का साथ समय ने छोड़ा
कुछ ने साथ समय का छोड़ा!

जो छूट गये सो छूट गये
समय अटक कर राह कभी किसी का देखा नहीं!

समय यही बताता हैं सबको समय लौट कर आता नहीं
जो समय गँवाता हैं वो जग में कुछ बन पाता नहीं!

वहीँ समय का ज्ञान जिसे हो जाता सबकुछ वो पालेता हैं
कीर्तिमान रचता हैं जग में नया इतिहाँस बनाता हैं!

सच मानो तो
ये समय हीं हैं जो रंक को राजा
और राजा को रंक बनाता हैं!

कहते हैं कई साम्राज्य ऐसे भी थे
जहाँ सूरज कभी अस्त नहीं होता था
पर समय के साथ आज वो इतिहाँस के पन्नों पे हैं!

यहाँ तक कि हमारे राम कृष्णा और पैग़म्बर भी
आज हमारे ग्रंथो के शोभा हैं!

ये बातें हमें बताती हैं
दुनियाँ में सबसे बलवान समय  हीं हैं!

तभी तो समय कभी रुकता नहीं
कभी थकता नहीं हैं!!

— Written by Anil Sinha

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January 31

एक पर्व मकरसंक्रन्ति

नये वर्ष का पहला पर्व
हम लोहड़ी मकारसंक्रन्ति या पोंगल
के रूप में मानते हैं!

भले हीं हम भाषा और छेत्र के आधार पर
अलग अलग तरीके से मानते हैं
पर उद्देश्य मूल उसका एकहि होता हैं!

क़ृषि प्रधान अपना ये देश
जब पहला फसल काटकर खलिहानो में लाता हैं
तो नये साल का नये फसल का ये त्यौहार मनाता हैं!

कोई लकड़ी या पराली जलाकर
उसके फेरे लेकर उसमे धान रावडी
समर्पित कर उसे लोहड़ी के रूप मनाता हैं!

कोई नये धान का चूड़ा तिल और गुड़ का लड्डू
तथा नये चावल दाल और आलू से खिचड़ी पका
इसे तिलसंक्रान्त या खिचड़ी के रूप में मानते हैं!

कोई नये फसल से नया पकवान बना भोग लगा
दीप और आतिस्बाज़ी जला
इसे पोंगल के रूप मानते हैं!

अब कड़ी मेहनत से फुर्सत पाकर
कहीं लोग पतंग उड़ाते हैं!

तो कहीं जलाकट्टु के माध्यम से
अपने साहस का परिचय देते हैं!

ये सारे पर्व हमारे समाज को जोड़ने
तथा संस्कृति और परम्परा को
कायम रखने का एक प्यारा विधा हैं!

और इन्ही में एक विधा का नाम मकरसंक्रान्ति हैं
नये वर्ष का पहला पर्व ये मकरसंक्रान्ति हैं!!

— Written by Anil Sinha

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January 2

धुंध !

इस धुंधली धुंध के शाया में 
जीवन जंजाल के माया में
नहीं सूझता जीवन पथ हैं
कौन सा पथ गर्त को जाता हैं
कौन सा पथ मंजिल को जाता हैं!

इस धुंधली धुंध के शाया में
नहीं सूझता  जीवन पथ हैं 
एक  बटोही जीवन पथ का,
जीवन के चौराहे पे खड़ा
असमंजस में पड़ा हुआ हैं
कौन सा पथ मंजिल को जाता हैं!

ना हीं  अब जीवन के पल ज्यादा हैं
ना पैरों में बल ज्यादा हैं
जो  हर  राह पर चल कर परखे
कौन सा पथ मंजिल को जाता हैं!

ये आँखों कि कमजोरी हैं या
मौसम में हीं धुंध सा छाया हैं
ना हीं साथ पथिक ना हम शाया हैं
कौन बताये कौन सा पथ मंजिल को जाता हैं!

तीन पहर जीवन के बीत चुके हैं
अब एक पहर हीं बाकी हैं
अब तक शंशय बना हुआ हैं
कौन सा पथ मंजिल को जाता हैं!

हार ना मानी जिसने अब तक
धुंध उम्र थकान या आँखों कि कमजोरी
कैसे बन सकती थी उसके राह का रोड़ा
निश्चय कर जिस पथ  चला वो पथ मंजिल को जाता हैं!

दृढ निश्चय कर ज्यो हीं वो आगे बढ़ता हैं
रथ पे सवार कोई आता उसके जीवन के शंध्या काल में
बिठा उसे ले जाता हैं
उस पथ जो उसके मंजिल को जाता हैं!!