August
1
ढूँढती निगाहें !
तालियों के गङ्गाहट के बीच
ढूँढती है निगाहें
उन हाथो को जो बज नहीं रहे थे !
दर्द होता है देखकर कि
जो हाथ बंधे हुए थे
वो तो अपनों के ही थे !
हमने तो ससम्मान बुलाकर उनको
अग्रिम पंती में बिठाया था !
हमने तो सोचा था
हासिल कर इस मुकाम को
हम उनका मान बढ़ाएंगे !
पर ना जाने क्यों अब
उनके चेहरे मुरझाये थे !
बार बार हम सोच रहे थे
क्या खता हुई है हमसे
हमने तो वो सब कुछ की
जो बन सकता था हमसे
फिर भी ना जाने वो
क्यों आज बने बेगाने थे !
ढूँढती है निगाहे
लाखो अपनों के बीच
तालियों के गङ्गाहट के बीच
सिमटे बैठे कुछ बेगाने थे !!
– Written by Anil Sinha