एक मुर्गे कि बांग !
सुबह सुबह उठकर एक मुर्गे ने ऐसी बांग लगाई
कवि जो पास ही टहल रहा था उसे समझ में आई
मुर्गे ने अपनी दिल कि ब्यथा बांग लगा बताई !
हम जो होते एक मानव तुझसा तू होता एक मुर्गा
तेरे प्रति हमारी सोच अलग ही होती
कभी ना बनते तेरे जैसा हम एक कसाई !
बल्कि हमतो ईश्वर कि इस अदभुत रचना का
रूप वर्ण और बुद्धि का
करते बहुत बड़ाई !
हम तो कचड़े खाकर करते हैं
धरती कि सफाई
हमें काम दिया जो ईश्वर ने हमने उसे निभाई !
प्रातः काल उठकर सबसे पहलें
सब उस अमृत बेला का लाभ उठा सके
उसके लिये ही हमने प्रातः काल में बांग लगाई !
ऐसे में ना कर प्रशंसा हमारे कर्मो का
मानव तूने मरोड़ कर मुर्गो कि गर्दन
नोच के उसके सुन्दर पंखो को उसे चिकेन बनाई !
फिर काट काट कर बोटी बोटी
उसने पका के उसको मुर्गमुसल्लम बनाई !
हे मानव तूने हमारे अच्छे कर्मो का
कैसा सिला दिया हैं
हमारे सामने ही हमारे बच्चों को नोच नोच कर खाई !
अब हम जो होते तुम
तो कदाचित ऐसा ब्यवहार ना करते
हम तो करते सम्मान ईश्वर के रचना का
कहते कहते उस नन्हें मुर्गा के आँखों में आँसू आई !!
— Written by Anil Sinha