January 31

बून्द… बून्द !

बून्द बून्द से ही तो गागर भरता हैं
ऐसे ही कई करोड़ो गागर से सागर भरता हैं
झुककर एक एक बून्द को नमन सागर भी करता हैं !

स्वरूप भले ही हो छोटा उसका
जो हमें श्रेष्ठ बनाता हैं
श्रेष्ठ सदा हमसे वो होता हैं जो श्रेष्ठ हमें बनाता हैं !

वास्तव में तो श्रेष्ठ कभी खुद को श्रेष्ठ नहीं बताता हैं
वृक्ष फलो से लदा हुआ सा खुद झुक जाता हैं
नहीं झुके अहम् से अपने जो वही बबूल कहलाता हैं !

सागर को ही अगर देखलो नहीं अहम् उसको कोई हैं
रूप बदल कर वो बादल भी बनजाता हैं
और बून्द बून्द बरस कर प्रकृति का साथ  निभाता हैं !

समरसता और जीने की कला प्रकृति हमें सिखाता है
पर हममेसे कितनो को ये समझमें में आता हैं !

हमने  तो दुनियाँ के इस परिबार को
जाती धर्म और मुल्क के नाम पे बाँट रखा हैं !
बून्द बून्द मिलकर बून्द  जहाँ सागर बनाते हैं
हमने तो सागर से अपने परिवार को बूंदो में बांटा हैं !

जीवन का ये मूल मंत्र अगर समझ में आया हैं
तो चलो हम सब बून्द आपस में मिलकर  पहले गागर
फिर गागर से सागर बनाते हैं !

हम सारे बूंदो का सौहार्द फिर सागर सा गहरा होजाता हैं
झुक कर एक एक बून्द को नमन सागर भी करता हैं !!!

— Written by Anil Sinha



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Posted January 31, 2021 by anilsinha in category "Poems

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